पुरुष के अहंम की जीत और नारी की बेचारगी का पर्व है विजयदशमी
माधव द्विवेदी, प्रधान संपादक ।
जिस सीता के लिए राम ने भीषण युद्ध कर रावण का वध किया, उसी सीता की अग्नि परीक्षा लेने के बावजूद एक नशेड़ी द्वारा उंगली उठाने के बाद त्याग दिया। सवाल लाजमी है कि क्या राम ने सीता को रावण की कैद से इस लिए मुक्त कराया कि उनसे प्यार करते थे, या पति धर्म निभा रहे थे। यदि प्यार करते तो अग्नि परीक्षा नहीं लेते, कोई अपने प्यार को आग में कैसे झौंक सकता है।
यदि श्री राम पति धर्म निभा रहे थे तो सीता के साथ खुद भी अग्नि परीक्षा देते। क्योंकि जिस धर्म मे राम को आदर्श बताया गया है उसी में पति पत्नी को एक समान (अर्ध नारीश्वर) भी कहा गया है। फिर यह क्यों न कहें कि सीता को रावण से मुक्त कराया सिर्फ अपने पुरुष होने के अहंम को बरकरार रखने के लिए। यहां नारी की बेचारगी भी दिखाई गई है कि भले ही वह (सीता) साक्षात देवी अवतार हो फिर भी वह पुरुष (राम) की मदद के बिना कुछ भी नहीं है। क्यों नहीं माता सीता ने अपने तेज से रावण को भस्म कर दिया, वह तो शक्ति रूपा हैं। यदि वह रावण का वध कर देतीं फिर पुरुष की मर्दानगी को चुनौती न मिल जाती सीधे सीधे।
नौ दिन तक (नवरात्रि) नारी शक्ति की पूजा व गुणगान के बाद ठीक दसवें दिन दशहरा, क्या यह नहीं दर्शाता कि नारी कितनी भी शक्तिरूपा हो उसे पुरुष की मदद लेनी ही पड़ेगी। जबकि रावण वध की तिथि पर हमारे धर्म ग्रंथों में ही अलग अलग वर्णन मिलते हैं। फिर नारी को शक्ति स्वरूपा दिखाने का यह ढोंग क्यों। नारी तुष्टिकरण के लिए ही तो उसे दुर्गा कहा गया न। रामायण युद्ध की पटकथा पर गौर करें तो राम को बनवास देने वाली नारी (केकयी), उस नारी को भ्रमित करने वाली भी नारी (मंथरा), राम से रावण का बैर कराने वाली नारी (सूर्पनखा), हठ कर अपने पति को स्वर्ण हिरण के पीछे भेजने वाली नारी (सीता), देवर द्वारा बनाई गई रेखा की मर्यादा तोड़ने वाली नारी (सीता)।
वहीं गौर करने वाली बात है कि एक पुरुष होने के चलते अहंकारी, अत्याचारी व नारी हरण करने वाले रावण को भी महाज्ञानी व विद्वान की उपाधि। अपनी पत्नी का हरण करने वाले से हवन पूजन करा उसके चरण वंदन करने वाला पुरुष महान। अपने पूरे जीवन मे नारी उद्धार में लगे रहने वाले, दूसरे के कहने पर अपनी पत्नी को त्यागने वाले मर्यादापुरुषोत्तम। औऱ यह सब पुराणों में लिखवाले बताने वाले कौन, पुरुष ही न ?
इतिहास से ही नारी को कमजोर, लाचार, बेबस दिखा कर उसका दमन किया गया है। उसकी आत्मा, शक्ति, आत्मसम्मान को इस तरह कुचला गया है कि वह सदियों से बेचारी बनकर रह गयी। उसे यही सिखाया गया है कि उसकी सुरक्षा एक पुरुष ही कर सकता है। पुरुष के बिना वह न सिर्फ अधूरी है बल्कि उसका खुद का कोई अस्तित्व ही नहीं है। आज भले ही आधुनिक युग कह लें, नारी खुद को कितना भी आधुनिक कह ले पर पुरुष मानसिकता की गुलामी से मुक्त नहीं हो सकती। आज की कामकाजी महिलाएं दोहरी जिम्मेदारी निभा रहीं हैं। पुरुष की तरह घर से बाहर निकल कर कमातीं हैं तो औरत की तरह घर की जिम्मेदारी भी पूरी करतीं हैं।
इस सब के बाद भी यदि वह नारी अपनी खुशी के लिए कभी खुद से कोई निर्णय ले तो उसे स्वछंद, घमंडी, निर्लज्ज और पता नहीं क्या क्या उपाधियां दे दीं जातीं हैं। आज भी यही सिखाया जाता है कि भले ही वह अपनी क्षमता के बल पर पुरुष से आगे निकल जाए, पर अपनी सुरक्षा व सम्मान के लिए उसे पुरुष की गुलामी करनी ही होगी। नारी के मन मे भी यह बात अच्छे से जम चुकी है। वह गुलामी की यही जंजीर अपनी बेटियों के गले मे खुशी से पहना कर जाती है।
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